By 121 News
Chandigarh, Nov.18, 2023:-दिगंबर जैन मंदिर में विराजमान आचार्य श्री सुबल सागर जी महाराज ने कहा गुरुता प्राप्ती की भावना है तो सर्वप्रथम शिष्ट श्रेष्ठ शिष्य बनने का सम्यक पुरुषार्थ प्रारंभ करोl शिष्य वही श्रेष्ठ होता है जो शिष्ट, कर्तव्यनिष्ठ, गुरु भक्त, संसार से भयभीत, तत्वपिपासु, सरल- स्वभावी, प्रमाद शुन्य एवं विद्यानुरागी होl
अनेक मूर्खों के गुरु बनने की अपेक्षा एक श्रेष्ठ,चर्यावान, ज्ञानवान, तपोनिष्ठ, सद्गुरु का शिष्य बनना श्रेष्ठ हैl विद्या प्राप्ति के लिए शिष्य बनना ही पड़ेगा l शिष्य बने बिना विद्यासिद्धी नहीं होती है यह प्रसिद्ध है l शिष्य की विनय देखकर गुरु प्रसन्न हो जाते हैं तब वह प्रसन्न चित्त से शिष्य को विद्याध्यान कराते हैं, तो वह विद्या शिष्य के अंतःकरण में प्रविष्ट हो जाती हैl शिष्य का कर्तव्य है कि वह अपने गुरु को कभी कुपित ना करें, उनके प्रति विश्वासघात न करें, तथा हमेशा उनकी आज्ञा का पालन करें l
शिष्य का प्रथम गुण गुरु भक्ति है जिस गुरु से आप विद्याभ्यास करना चाहते हैं उसके प्रति आपका समर्पण भाव एवं भक्ति भाव होना चाहिए, बिना आस्था, विश्वास, भरोसा एवं भक्ति के बिना विद्या की प्राप्ति नहीं की जा सकती है l जो आपको सच्चा बोध दे रहा है उसके प्रति आपका समर्पण होना चाहिए l विद्यानुरागी शिष्य के संपूर्ण काम क्रोधादि विकल्पों से परे होकर सरल विद्याभ्यास करना ही श्रेयसकर है l श्रेष्ठ शिष्य वही है जो स्व–पर वा आगम की आज्ञा का निर्मल पालन करे l वह स्वप्न में भी गुरु आज्ञा भंग करने का विचार नहीं लाता तथा आगम के शब्द शब्द पर विश्वास रखता है ऐसा गुणवान शिष्य ही स्व –पर कल्याण में समर्थवान होता है l
योग्य शिष्य का धर्म है कि जब गुरु समझाये है वह जिज्ञासापूर्ण मुद्रा में गुरु के मुखमंडल की ओर दृष्टिपात करें , तथा जब गुरु डांटे तब विनयपूर्वक उनके चरणों में दृष्टि रखें, गुरु से वचन युद्ध न करें lप्रज्ञावान शिष्य श्री गुरु के आसन पर आसीन नहीं होता गुरु के समक्ष उनके ऊंचे आसन पर भी नहीं बैठता, गुरु के समीप ऊंचा आसान भी नहीं लगता, जांघ पर पैर रखकर भी नहीं बैठता,अहंकारी मुद्रा भी विनयशील शिष्य गुरु के सामने धारण नहीं करता अपितु नम्र वृत्ति का पालन करता है l यह जानकारी बाल ब्र. गुंजा दीदी एवं धर्म बहादुर जैन ने दी l
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