By 121 News
Chandigarh, Nov.07, 2023:-श्री दिगम्बर जैन में धर्म सभा को संबोधित करते हुये आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज ने कहा आत्मा अनंत शक्ति शाली है अपने आत्म स्वरूप को नहीं समझने से संसार में भ्रमण कर रहा है। संसार में स्थित जो पदार्थ है वह अगर हमारे को अच्छा लगता है तो यह जीव उससे राग करता है और वही पदार्थ अगर बुरा लगता है तो यह उससे द्वेष करने लगता है यह राग-द्वेष ही संसार चक्र का मुख्य कारण है और यह राग-द्वेष होता कहाँ से है तो ऐ दोनों मोह से होते है।
मोह अर्थात् कर्मों का राजा मोहनीय कर्म। आठ कर्म होते है इन सबमें मुख्य या प्रधान मोहनीय कर्म है। यह मोहनीय कर्म का पर्दा हमारे आत्मा के दर्शन करने में बाधा पंहुचाता है मोहनीय कर्म उदय से जीव अपने स्वरूप को भूलकर अन्य को अपना समझने लगे, उसे मोहनीय कर्म कहते है। जैसे मदिरा (शराब) पीने से मनुष्य परवश हो जाता है उसे अपने तथा पर के स्वरूप का भान नहीं रहता है और हित- अहित के विवेक से शून्य हो जाता है। विवेक से शून्य अवस्था ही मोह कर्म की जनक है। सही-गलत का, हित-अहित का, कर्तव्य-अकर्तव्य,का काम-अकाम, हेय –उपादेय का ज्ञान नहीं होता है। अज्ञानता के कारण ही यह जीव दुःखी हो रहा है। जब तक इस जीव की अज्ञानता नष्ट नहीं होगी, तब तक संसार भ्रमण चलता रहेगा। इसको नष्ट करने का एक ही उपाय है वह है ज्ञान मे उपयोग लगना| उपयोग जब बाहरी पदार्थों से-रिश्ते-नातों से दूर होकर अपने ज्ञान में लगेगा तो निश्चित ही मोह का क्षय होगा। ज्ञान भावना से हमारी वैराग्य भावना मजबूत होती है हमें स्व-पर का भेद विज्ञान होता है यह भेद विज्ञान ही हमारे दोषों को दूर कर, गुणों से सुसज्जित करता है। इसलिए कहा जाता है कि ज्ञानाभ्यास करे मनमाही, ताको मोह महातम नाहीं।
मन को ज्ञान के अभ्यास में लगाऐ रखने से मोह रूपी महा अंधकार बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है और हमे अपने आत्म स्वरूप का ज्ञान होने लगता है यह ज्ञान ही हमें अनंत सुखो को देने वाली मोक्षमहल की चाबी है।
यह जानकारी संघस्थ बाल ब्र.गुंजा दीदी व धर्म बहादुर जैन ने दी।
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