By 121 News
Chandigarh, Aug.20, 2023:-चड़ीगढ़ दिगम्बर जैन मंदिर में धर्म सभा में आचार्य श्री सुबल सागर जी महाराज ने कहा कि "ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण, यह परमामृत जन्म जरा मृत्यु रोग निवारण" जिस व्यक्ति के पास ज्ञान है वह संसार समुंद से पार हो सकता है। क्यों उसको पता है पार होने की विधि क्या है। ज्ञान से ही लोगों को अपना हित-अहित का ज्ञान होता है क्या करने योग्य है क्या नहीं। सही गलत का निर्णय भी ज्ञान वान मनुष्य ही कर सकता है। इस संसार में ज्ञान से सहित मनुष्य को ही जिंदा कहाँ है ज्ञान से रहित मनुष्य को मुर्दा के समान है। वह अपना कुछ भी अच्छा है। बुरा नहीं सकता है।
ज्ञान से ही विनय आती है अर्थात् ज्ञान से सहित मनुष्य हमेशा विनयवान होता है। अपने से छोटे या बड़ो को सम्मान देता है। जिस प्रकार किसी वृक्ष पर फल आ जाते हैं तो वह उनके भार से झुक जाता है उसी प्रकार ज्ञानवान मनुष्य हमेशा विनम्रता से झुका रहते है। सबको समान दृष्टि से देखते हैं किसी में ऊँच नीच का पक्षपात नहीं करते हैं।
ज्ञान की शोभा विनम्रता से है। घमंड सें ज्ञान का महत्त्व कम हो जाता है। देखो! गुणों की शोभा गुण से ही है, यदि एक गुण को धारण किया है तो दूसरे गुण अपने आप आकर्षित होकर चले आते हैं। ज्ञान प्राप्त होना तो दुर्लभ है ही किन्तु घमण्ड नहीं होना उससे भी दुर्लभ है। ज्ञान गुण के साथ विनम्रता गुण यह दोनों गुण एक साथ मिलते हैं तो ज्ञान की महत्ता बढ़ती है और ज्ञानी को भी आदर मिलता है।
ज्ञान तो तीनों लोकों में पूज्यता को प्राप्त होता है। आज व्यक्ति जिस क्षेत्र में जितनी तरक्की कर रहा है, उसका एक मात्र कारण ज्ञान है। जो उसको आगे बढ़ाने में उपयोगी सिद्ध हो रहा है। जो जितना जितना ज्ञान के क्षेत्र में अंदर-अंदर जाता है वह उतना-उतना अपने ज्ञान के माध्यम से नई-नई खोज करता है और अपने देश, राष्ट्र को विकसित करने में उसका महत्त्व उतना ही श्रेष्ठता को प्राप्त होता जाता है।
"ऐसा करने से हमारी आत्मा में ज्ञान के संस्कार ढणता को प्राप्त होते जाते हैं, ऐ संस्कार ही नए संस्कारों को देते हुए हमारी आत्मा का विकास करते जाते है। जो हमारे जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु रूपी रोगों का नाश करने वाला है, यह परम अमृत के समान है अर्थात् हमें हमारी आत्मा को अमर पद (सिद्ध अवस्था) को देने वाली कहा है। अंनत सुख में विराजमान करा देती है।
यह जानकारी संघस्थ बाल ब्र. गुंजा दीदी एवं धर्म बहादुर जैन जी ने दी।
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